Biology Class 12

12th Biology Chapter 2 सब्जेक्टिव प्रश्न

पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन Subjective

  1. पुंपूर्वता से आप क्या समझते हैं? इसके लाभ बताइए।

उत्तर परागकोष, वर्तिकाग्र से पहले ही परिपक्व हो जाते हैं, इस अनुकूलन को पुंपूर्वता (protandry) कहते हैं। उदाहरण-साल्विया। इस अनुकूलन के रण पौधों में स्वपरागण (self pollination) नहीं हो सकता है।

  1. स्वपरागण के लाभों को बताएँ।

उत्तर स्वपरागण के निम्नलिखित लाभ हैं :

(i) स्वपरागण पौधे की विशिष्ट जाति को बनाए रखता है तथा जीन के मिश्रण को रोकता है। 

(ii) परागण के अवसर अधिक होते हैं।

  1. पुष्पों द्वारा स्व-परागण को रोकने के लिए विकसित की गयी दो कार्यनीतियों का विवरण दें।

उत्तर

पुष्पों में स्व-परागण को रोकने हेतु विकसित की गयी दो कार्यनीतियाँ निम्न हैं –

स्व-बन्ध्यता (Self-fertility) – इस प्रकार की कार्यनीति में यदि किसी पुष्प के परागण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर गिरते हैं तो वे उसे निषेचित नहीं कर पाते हैं। उदाहरण-माल्वा के एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर अंकुरित नहीं होते हैं।

भिन्न काल पक्वता (Dichogamy) – इसमें नर तथा मादा जननांग अलग-अलग समय में | परिपक्व होते हैं जिससे स्व-परागण नहीं हो पाता है। उदाहरण-सैक्सीफ्रेगा कुल के सदस्य।

  1. स्व-अयोग्यता क्या है ? स्व-अयोग्यता वाली प्रजातियों में स्व-परागण प्रक्रिया बीज की रचना तक क्यों नहीं पहुँच पाती है ?

उत्तर

स्व-अयोग्यता पुष्पीय पौधों में पायी जाने वाली ऐसी प्रयुक्ति है जिसके फलस्वरूप पौधों में स्व-परागण (self-pollination) नहीं होता है। अतः इन पौधों में सिर्फ पर-परागण (cross pollination) ही हो पाता है। स्व-अयोग्यता दो प्रकार की होती है –

विषमरूपी (Heteromorphic) – इस प्रकार की स्व-अयोग्यता में एक ही जाति के पौधों के वर्तिकाग्र तथा परागकोशों की स्थिति में भिन्नता होती है अतः परागनलिका की वृद्धि वर्तिकाग्र में रुक जाती है।

समकारी (Homomorphic) – इस प्रकार की स्व-अयोग्यता विरोधी-S अलील्स (opposition-S-alleles) द्वारा होती है। उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप स्व-अयोग्यता वाली जातियों में स्व-परागण प्रक्रिया बीज की रचना तक नहीं पहुँच पाती है।

  1. बैगिंग (बोरावस्त्रावरण) या थैली लगाना तकनीक क्या है ? पादप जनन कार्यक्रम में यह कैसे उपयोगी है ?

उत्तर

बैगिंग (बोरावस्त्रावरण) एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा परागण में ऐच्छिक परागकणों का उपयोग तथा वर्तिकाग्र को अनैच्छिक परागकणों से बचाना सुनिश्चित किया जाता है। बैगिंग के अन्तर्गत विपुंसित पुष्पों को थैली से ढ़ककर, इनके वर्तिकाग्र को अवांछित परागकणों से बचाया जाता है। पादप जनन में इस तकनीक द्वारा फसलों को उन्नतशील बनाया जाता है तथा सिर्फ ऐच्छिक गुणों वाले परागकण वे वर्तिकाग्र के मध्य परागण सुनिश्चित कराया जाता है।

  1. त्रि-संलयन क्या है ? यह कहाँ और कैसे सम्पन्न होता है ? त्रि-संलयन में सम्मिलित न्यूक्लीआई का नाम बताएँ।

उत्तर

परागनलिका से मुक्त दोनों नर केन्द्रकों में से एक मादा केन्द्रक से संयोजन करता है। दूसरा नर केन्द्रक भ्रूणकोष में स्थित द्वितीयक केन्द्रक (2n) से संयोजन करता है। द्वितीयक केन्द्रक में दो केन्द्रक पहले से होते हैं तथा नर केन्द्रक से संलयन के पश्चात् केन्द्रकों की संख्या तीन हो जाती है। तीन केन्द्रकों का यह संलयन, त्रिसंलयन (triple fusion) कहलाता है। त्रिसंलयन की प्रक्रिया भ्रूणकोष में होती है तथा इसमें ध्रुवीय केन्द्रक अर्थात् द्वितीयक केन्द्रक व नर केन्द्रक सम्मिलित होते हैं।

  1. द्विनिषेचन के पश्चात किसी आवृतबीजी पौधे के बीजाण्ड में होने वाले बहुत से परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर

द्विनिषेचन के पश्चात बीजाण्ड में होने वाले परिवर्तन

  1. बाह्य अध्यावरण(Outer Integurment) – बीज का बीजचोल (testa) बनाता है।
  2. अन्तः अध्यावरण(Inner Integument) – बीज का अन्त:कवच या टेगमेन (tegmen) बनाता है।
  3. बीजाण्ड वृन्त(Funiculus) – नष्ट हो जाता है। लीची में इससे एक मांसल ऊतक निकलता है, यह बीज के चारों ओर होता है, इसे बीजचोल या एरिल कहते हैं। यह खाने योग्य भाग है। इसे third integument भी कहते हैं।
  4. बीजाण्डद्वार(Micropyle) – बीजाण्डद्वार के रूप में ही रहता है। अरण्डी (castor bean) में इससे एक अतिवृद्धि निकलती है, जिसे बीजचोलक (caruncle) कहते हैं।
  5. बीजाण्डकाय(Nucellus) – प्रायः समाप्त हो जाता है, कभी-कभी पतली परत के रूप में बचा रहता है जिसे परिभ्रूणपोष (perisperm) कहते हैं; जैसे-कुमुदिनी, काली मिर्च आदि।

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